Thursday, March 31, 2011

शायद तुम कल आओगे

  
  इन खाली पन्नों पर, दो चार उलटते पुलटते शब्द लिख कर, जान डालने की कोशिश कर रही हूँ.
  जान पन्नों मैं, या मन मैं, क्योंकि सब खाली पड़ा है,
  एक सन्नाटे सा, उस आहट के इंतज़ार मैं,
  जो झंकृत कर सके, आत्मा के उन तारों को
  जिनसे सुर ताल और लय परे जा चुके हैं||

  आज सोचा, रंग डालूं इन कोरे पन्नों को,
  आस पास देखा, तो रंग ओझल थे.
  बस एक कोरे कागज़ की सफेदी,
  बहुत खोजा पर नहीं मिले.
  शायद तुम ने छिपा दिए, और तुम भी छिप गए||

  आओ तो रंग लेते आना, मैं राह तकती हूँ.
  चाहा की आप ही रंग लू अपने जीवन को.
  पर देखा तो दो ही रंग थे,
  रात का, और चांदनी का.
  रात तो मेरी परछाई सी स्याह थी,
  और चांदनी मन सी कोरी||

  पर उन के लिए भी आता है सवेरा,
  और रंग देता है भोर को सुनहरा.
  हर भोर के साथ बुनती हूँ खवाब की तुम आओगे,
  सतरंगी सपने से, मेरे अपने से||

  पर तुम नहीं आते,
  आती है तो बस सांझ,
  जो ठहर सी जाती है.
  और मैं, हर रात के संनाटते मैं,
  सोचती हूँ,

  शायद तुम कल आओगे.

~~ Pali 

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